जिंदगी किसान की
झेलता है वह चुभन हँसकर
खेत मे काँटे और कंकड की
पर कभी न भूलता नाल लगाना
अपने हल खेंचने वाले बैलो की
कांपता नहीं सिर्फ जाड़े की ठंड से
बल्कि कुर्की लाते अफसरों से भी
और भीगता नहीं सिर्फ बारिश से
भीगता है तब वह आँसुओ से भी
बने एक ही बाँस मिट्टी से
उसकी झोपड़ी और तबेला
गाय बैल कभी बेचे आकर
निगल सके न वह निवाला
अभी अछूता है शहर वाले
व्रुद्धाश्रम के रिवाजों से भी
और संभालता है जीवन भर वह
बांझ गाय और बूढ़े बैलो को भी
थकता नहीं है चूल्हा उसका
मेहमानों की संख्या देखकर
हा बुझ जाता है कभी कभी
बस अकालों की मार खाकर
झुल भी जाता है रात बेरात
एक दिन फाँसी के फंदे से
फिर भी बंधी रहती है आत्मा
उसी खेती हल बैल फसलों से
मिल तो जाते ही है चार कंधे
उसकी अंतिम यात्रा के लिए
एक कंधा ही बस मिल नही पाता
निर्धन की बेटी की बारात के लिए
मगर जड़े उसकी है ऐसी जुड़ी
फिर आ जाती है दूसरी पीढ़ी
फटे कपड़ो में कपास लगाने
भूखे पेट से ही अनाज उगाने
हल जोतकर जमीन सवारे
और करे इंतजार बारिश की
संभाल लेती है कमान फिर से
अन्नपूर्ति के इस महायज्ञ की
खेती के कण कण में है बसा
पूर्वजो का उसके खून पसीना
दिल से सच्चे किसानों का तो
ऐसा ही जीना ऐसा ही मरना
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