श्रीनगर, 18 जनवरी (आईएएनएस)| सन 1990 के दशक की शुरुआत में उग्रवादियों के निशाने पर आए लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडितों को घाटी से पलायन करने को मजबूर होना पड़ा था, हालांकि सतीश कुमार टिकू (बदला हुआ नाम) उन भाग्यशालियों में से हैं, जो उग्रवादियों के निशाने पर आने से किसी तरह से बचे रहे।
जनवरी, 1990 के उस विनाशकारी दिन में वह किसी तरह से उस वक्त मौत को चकमा देने में कामयाब रहे, जब श्रीनगर के कानू कदल इलाके में कुछ अराजक तत्व उनको मार गिराने के लिए प्रतीक्षारत थे।
टीकू पेशे से एक बैंक अफसर थे और वहां से बच निकलने के लिए उन्होंने बड़ी ही सावधानियां बरतीं, जैसा कि एक कर्मी को अपने काम के दौरान बरतना पड़ता है। वह हर दिन अपने घर से काम के लिए सुबह साढ़े आठ बजे निकलते थे और शाम के सात बजे वापस लौटते थे।
एक आदमी टीकू पर निशाना साधने के लिए सड़क पर उसी वक्त उसका इंतजार कर रहा था, जिस वक्त वह रोज घर से बाहर निकलता था। घर से निकलकर एक संकरी गली से होकर सड़क तक पहुंचने से पहले अचानक उन्हें याद आया कि वह बैंक के वॉल्ट की चाबियां घर पर ही भूल आए हैं। इसे लेने के लिए वह दोबारा अपने घर गए।
वह कहते हैं, “सुबह के करीब 8.20 बजे चाबियां लेने मैं घर वापस गया। जब मैं घर पहुंचा, तब मुझे पास से गोलियों की आवाजें सुनाई दीं। घर में मेरी पत्नी और मेरे दो बच्चे थे। हमने खुद को अंदर से लॉक कर दिया। करीब दो घंटे तक चारों ओर सन्नाटा पसरा था। आखिरकार मेरे एक मुसलमान पड़ोसी ने मेरे घर का दरवाजा खटखटाया। उन्होंने जानना चाहा कि क्या मैं घर पर ही हूं या बैंक के लिए निकल गया हूं। मैं उनसे बाहर के वाक्ये के बारे में पूछा। उन्होंने कहा कि कुछ उग्रवादियों ने पड़ोस के एक पंडित को मार गिराया है, जो टेलीकॉम डिपार्टमेंट में काम करते थे।”
पुरानी यादों को समेटते हुए उन्होंने आगे कहा, “मुझे पता था कि वे किसी तरह से मुझसे चूक गए हैं। इस घटना से मुझे चेतावनी मिल गई थी कि मुझे जल्द से जल्द सामान वगैरह बटोरकर घाटी से भाग निकलना चाहिए। मैं जानता था कि मैं किस्मत से बच निकला हूं। हमने ज्यादा कुछ पैक नहीं किया। चारों ओर सुरक्षाकर्मी तैनात थे। मैंने घर से बाहर आकर उन्हें पूरी बात बताई और उनसे अनुरोध किया कि जब तक हम घर न छोड़ दे, तब तक वे हमारे साथ रहे। वह आखिरी वक्त था, जब मैंने उस जगह को देखा था, जहां मैं, मेरे भाई और मेरे माता-पिता पैदा हुए थे।”
सतीश अभी बैंक से रिटायर हो चुके हैं और फिलहाल वह अमेरिका में रहते हैं, जहां उनकी बेटी की शादी हुई है। 32 साल की कम उम्र में उनके बेटे की मौत हो चुकी है।
भारी आवाज में वह आगे कहते हैं, “बेटे को ब्रेन ट्यूमर था और अमेरिका में बेहतर ट्रीटमेंट कराने के बाद भी वह नहीं बच पाया। हम श्रीनगर के पास सदीपोरा में उसकी अस्थियों को विसर्जित नहीं कर सके, जहां सदियों से हमारा परिवार यह करता आया है। मेरे लिए सबकुछ खत्म हो गया है। अब कोई भी कश्मीर या मेरे बेटे को वापस नहीं ला सकता है।”
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